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उत्तर प्रदेश में बीजेपी की नेतृत्व रणनीति: पिछड़े और दलित नेताओं पर दांव की मजबूरी

उत्तर प्रदेश की सियासत में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सामने एक नई चुनौती उभर रही है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्थिति जटिल है। एक ओर, उसे अपनी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की छवि को बनाए रखना है, वहीं दूसरी ओर, सामाजिक न्याय और समावेशिता के मुद्दों पर विपक्ष के हमलों का जवाब देना है। हाल के वर्षों में, खासकर 2024 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए उपचुनावों के परिणामों और प्रमुख विपक्षी पार्टी की पीडीए की रणनीति ने बीजेपी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया है।

पिछले दिनों डिप्‍टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को दिल्‍ली से बुलावा आया और वह गृह मंत्री अमित शाह से मिले। इसके बाद केशव प्रसाद मौर्य ने अमित शाह को भारतीय राजनीति का चाणक्य बताते हुए मुलाकात की फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट की. उप मुख्यमंत्री ने एक्स पर लिखा, ”भारतीय राजनीति के चाणक्य एवं हम जैसे लाखों कार्यकर्ताओं के प्रेरणास्रोत व मार्गदर्शक, देश के गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह से शिष्टाचार भेंटकर 2027 में उत्तर प्रदेश में 2017 दोहराने एवं तीसरी बार बीजेपी सरकार बनाने सहित विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर विस्तृत चर्चा कर मार्गदर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.”

बीजेपी सूत्रों मुताबिक केशव प्रसाद मौर्य प्रदेश अध्‍यक्ष बन सकते हैं, अथवा वह राष्‍ट्रीय महामंत्री भी बनाए जा सकते हैं और उत्‍तर प्रदेश की कमान किसी दलित नेता को देकर केशव को यूपी का प्रभारी भी बनाया जा सकता है। यह सब ऐसे ही नहीं ओ रहा है।

पार्टी, जो लंबे समय से सवर्ण जातियों के दबदबे और हिंदुत्व के नैरेटिव के सहारे सत्ता में रही है, अब पिछड़े और दलित नेताओं को नेतृत्व की कमान सौंपने की दिशा में कदम बढ़ाने पर विचार कर रही है। यह बदलाव न केवल राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है, बल्कि सामाजिक गतिशीलता और हाल के सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रमों का परिणाम भी है।

2024 के लोकसभा चुनाव में मिला झटका

2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में अप्रत्याशित नुकसान का सामना करना पड़ा। जहां पार्टी ने 400 से अधिक सीटों के नारे के साथ चुनाव लड़ा, वहीं समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस के गठबंधन ने उसे कड़ी टक्कर दी। एक रिपोर्ट के अनुसार, सपा ने 32 ओबीसी, 16 दलित, 10 ऊपरी जाति और 4 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर सामाजिक समीकरणों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की। इस दौरान विपक्ष ने बीजेपी के खिलाफ संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने का नैरेटिव बनाया, जिसने ओबीसी और दलित मतदाताओं में डर पैदा किया। यह डर बीजेपी के 400 सीटों के दावे के साथ और बढ़ गया। बीजेपी इस नैरेटिव का प्रभावी ढंग से जवाब नहीं दे पाई, जिसके परिणामस्वरूप दलित और गैर-यादव ओबीसी वोटों का एक हिस्सा सपा और अन्य विपक्षी दलों की ओर खिसक गया।

पिछड़ों और दलितों पर बढ़ते अत्याचार

पिछले कुछ समय में उत्तर प्रदेश में पिछड़े और दलित समुदायों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं सुर्खियों में रही हैं। इटावा में हाल ही में घटिव यादव कथावाचक कांड ने सामाजिक तनाव को बढ़ाया और कथावाचकों के साथ बदसलूकी की घटना ने सियासी तूफान खड़ा कर दिया। इसी तरह, सुल्तानपुर में सुनील यादव हत्याकांड ने भी बीजेपी सरकार की कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाए। इसके अलावा, मुठभेड़ों (इंटरकाउंटर) में मारे जाने वालों में अधिकांश पिछड़े और दलित समुदायों से होने के आरोप भी लगते रहे हैं, जिसने इन समुदायों में असंतोष को और बढ़ाया है।

अखिलेश यादव का आक्रामक पीडीए फॉर्मूला

समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने अपने पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूले के जरिए बीजेपी को सीधे चुनौती दी है। अखिलेश ने न केवल दलित और पिछड़े वोटरों को साधने की रणनीति अपनाई, बल्कि संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर बीजेपी को घेरने में भी सफलता हासिल की। उनकी रणनीति का एक हिस्सा ‘मिशन कांशीराम’ भी रहा, जिसके तहत उन्होंने दलित और अतिपिछड़े वर्गों में सामाजिक चेतना जगाने की कोशिश की। सपा ने बसपा से आए नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर दलित वोटबैंक को साधने की कोशिश तेज की है। इसके अलावा, अखिलेश ने इटावा जैसे मामलों में ब्राह्मणों पर निशाना साधकर सामाजिक ध्रुवीकरण को और तेज किया, जिसने बीजेपी को रक्षात्मक रुख अपनाने के लिए मजबूर किया।

सामाजिक समीकरणों का बदलता गणित

उत्तर प्रदेश में दलित और ओबीसी मतदाता किसी भी दल के लिए गेम-चेंजर साबित हो सकते हैं। प्रदेश में लगभग 22% दलित मतदाता हैं, जो सियासत में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा ने कुछ पासी बहुल जिलों में अच्छा प्रदर्शन किया, जिसने बीजेपी को सतर्क कर दिया। इसके अलावा, गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोटरों का एक हिस्सा बीजेपी की ओर गया था, लेकिन 2024 में यह वोटबैंक सपा और अन्य दलों में बंट गया। बीजेपी ने दलित और ओबीसी युवाओं को अपनी विचारधारा से जोड़ने के लिए सामाजिक न्याय संगोष्ठी जैसे कार्यक्रम शुरू किए हैं, लेकिन इन प्रयासों का प्रभाव अभी सीमित दिख रहा है।

बीजेपी की रणनीति में बदलाव

बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में अपनी साख बचाने और विपक्ष के नैरेटिव का मुकाबला करने के लिए कई कदम उठाए हैं। इनमें से एक प्रमुख कदम है दलित और पिछड़े नेताओं को नेतृत्व में लाने की कोशिश। पार्टी ने संगठन स्तर पर ओबीसी और दलित नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी हैं, जैसे कि प्रदेश संगठन महामंत्री धर्मपाल सिंह, जो स्वयं अतिपिछड़े समुदाय से आते हैं। इसके अलावा, बीजेपी ने दलित और ओबीसी युवाओं को अपनी विचारधारा से जोड़ने के लिए विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में कार्यक्रम शुरू किए हैं।

हालांकि, नेतृत्व में बदलाव की चर्चा तब और तेज हुई जब प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी का कार्यकाल जनवरी 2023 में समाप्त हुआ। नए अध्यक्ष की नियुक्ति में देरी और विभिन्न दावेदारों के बीच चल रही खींचतान ने इस बात को बल दिया कि बीजेपी किसी पिछड़े या दलित नेता पर दांव लगाने पर विचार कर रही है। यह कदम न केवल सामाजिक समीकरणों को संतुलित करने के लिए जरूरी है, बल्कि विपक्ष के ‘संविधान खतरे में’ और ‘आरक्षण विरोधी’ नैरेटिव का जवाब देने के लिए भी महत्वपूर्ण है।

चुनौतियां और संभावनाएं

बीजेपी के लिए यह रणनीति कई चुनौतियों के साथ आती है। पहली चुनौती है ऊपरी जातियों, खासकर ठाकुर और ब्राह्मण समुदायों, को नाराज किए बिना दलित और ओबीसी नेतृत्व को बढ़ावा देना। अखिलेश यादव ने ठाकुरवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाकर पहले ही बीजेपी को घेरने की कोशिश की है। दूसरी चुनौती है दलित और ओबीसी वोटरों का भरोसा जीतना, जो हाल की घटनाओं और विपक्ष के नैरेटिव से प्रभावित हुए हैं। तीसरी चुनौती है मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और चंद्रशेखर आजाद जैसे नए दलित नेताओं का उभरना, जो दलित वोटों को और बांट सकते हैं।

 

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