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भारत की विदेश नीति : नेहरू की नींव, मोदी का विस्तार

संसद में कोई भी बात बिना पंडित जवाहर लाल नेहरू (Pandit Jawaharlal Nehru) के पूरी नहीं होती और भारत की विदेश नीति India’s foreign policyको लेकर आज जो प्रश्न हम लोगों के सामने खड़े हैं, उसकी भी बात बिना पंडित नेहरू के पूर्ण नहीं हो सकती। भारत और खासकर नरेंद्र मोदी जी के कार्यकाल का भारत लगातार “ग्लोबल साउथ” की बात कर रहा है। इसके अंतर्गत वह न केवल एशिया के तमाम देशों को अपने साथ जोड़ रहा है बल्कि अफ्रीका से लेकर दक्षिणी अमेरिका तक पहुँच रहा है।

दुनिया में ग्लोबल साउथ (Global South) की पहली बैठक नेहरू (Jawahar Lal Nehru) जी ने सन 1947 में कराई थी जिसमें चीन, वियतनाम, म्यांमार, थाईलैंड, श्रीलंका जैसे एशिया के देशों के साथ ही साथ अफ्रीका के तमाम देशों के ऑब्जर्वर भी इसमें प्रतिभाग करने आए थे। यह बैठक मार्च-अप्रैल में आयोजित हुई थी, तब तक भारत भी आजाद नहीं हुआ था। वो तमाम देश जो जल्द ही आजाद होने वाले थे अथवा जो आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे सभी शामिल हुए।

इस बैठक का एजेंडा था कि ग्लोबल साउथ के देश दो ध्रुवीय दुनिया में से किसी एक ध्रुव की गुलामी से मुक्त रहें। वह अपनी आजादी के बाद ब्रिटेन, फ्रांस अथवा पुर्तगाल के प्रभाव से मुक्त होकर अपने अस्तित्व को स्वतंत्रता से आगे बढ़ा सकें। इस बैठक में जो बातें निकल कर आईं। वहीं बातें नेहरू जी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद स्वीकार कीं और 1955 में उन्होंने जो नॉन अलाइनमेंट अर्थात निर्गुट का सिद्धांत दिया उसका आधार बना।

नेहरू जी ने इसी निर्गुट सिद्धांत के आधार पर हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा गढ़ा और उन्हें लगा कि एशिया के दो प्रमुख देश यदि एक मंच पर आ जाएँ तो वह दो ध्रुवीय दुनिया में अपना एक तीसरा ध्रुव बनाने में सफल रहेंगे। उस समय उनको अफ्रीका के स्वतंत्रता सेनानियों का भी साथ मिल रहा था क्योंकि उन्होंने नस्लीय समानता, स्वतंत्रता, संप्रभुता की बात मजबूती से रखी। लेकिन इन सबके बीच नेहरू जी से एक बड़ी चूक हो गई।

सरदार पटेल (Sardar Patel) जब देश के गृहमंत्री थे तब उन्होंने नेहरू जी को समझाने के लिए सरकारी चिट्ठी लिखी थी कि कृपया चीन से सावधान रहें लेकिन नेहरू जी अपनी खुमारी में थे और उन्हें जल्द से जल्द अंतरराष्ट्रीय ख्याति चाहिए थी। उनको यह पता ही नहीं था कि दुनिया आपका सम्मान अथवा आपके बातों और समझौतों का सम्मान आपकी आबादी, आपके इतिहास, आपका ज्ञान आदि देखकर नहीं करती बल्कि आपकी शक्ति देखकर करती है। जब तक ब्रिटिश भारत में रहे, चीन और भारत के बीच तिब्बत एक बफर स्टेट बना रहा।

चीन का तिब्बत पर राजनीतिक प्रभाव तो था लेकिन फिर भी तिब्बत की व्यवस्था भिन्न बनी रही। चीन ने भारत से वादा किया कि वह तिब्बत को अपने में नहीं मिलाएगा क्योंकि इसे अंग्रेजों की शक्ति का पूरा एहसास था। अंग्रेज जब भारत से गए तो द्वितीय विश्वयुद्ध (Second world war) के कारण उन्होंने भारत सरकार को एक मजबूत सेना सौंपकर गए। लेकिन नेहरू जी का मानना था कि जब हम शांति के पुजारी हैं तो भला हमें सेना की क्या आवश्यकता? वह इस जिद पर थे कि सेना की भला क्या आवश्यकता? वह तो भला हो पाकिस्तान के धोखेबाज नेताओं का जिन्होंने मात्र दो महीने के भीतर कश्मीर में हमला बोल दिया और नेहरू को समझ में आ गया कि सेना कितनी आवश्यक है। फिर भी उन्होंने सेना को आकार में 20% कर दिया।

जब अंग्रेज चले गए तो चीन से नेहरू जी ने बातचीत की और उसको खुश रखने का प्रयास किया। चीन ने भी नेहरू जी से वादा कर दिया कि वह तिब्बत को छेड़ेगा नहीं लेकिन धीरे-धीरे वह तिब्बत में घुसता चला गया और पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। ऐसी स्थिति में नेहरू जी को तिब्बत में चीन के पूर्ण नियंत्रण का विरोध करना चाहिए था लेकिन नॉन अलाइनमेंट पर हस्ताक्षर करने के बदले में पंडित नेहरू ने जल्दबाजी में चीन की तिब्बत पर नियंत्रण की धृष्टता को स्वीकार कर लिया। अब यदि नेहरू जी को तिब्बत को दुत्कारना ही था तो पूरी तरह दुत्कार देते लेकिन इस हस्ताक्षर के मात्र चार-पाँच वर्ष के भीतर जब दलाई लामा को देश छोड़ना पड़ा तो नेहरू जी ने उन्हें न केवल धर्मशाला में जगह दे दी बल्कि उनकी सरकार भी वहाँ स्थापित कर दी। कुल मिलाकर न तिब्बत का साथ निभा पाए और न ही चीन का।

इसी को लेकर चीन मामले के विशेषज्ञ जॉन रोलैंड ने उस समय अपनी पुस्तक में लिखा कि नेहरू को लगता था कि चीन इतने दशकों तक तिब्बत इसलिए नहीं गया क्योंकि वह जाना नहीं चाहता था बल्कि असल कारण यह था कि उन्हें पता था कि यदि वह तिब्बत में उतरे तो ब्रिटेन वहाँ चढ़कर लड़ाई लड़ेगा। चीन दरअसल ब्रिटेन नियंत्रित भारत की शक्ति से खौफ खाता था लेकिन नेहरू जी के आने के बाद चीन का यह डर समाप्त हो गया।

एक बार जब चीन तिब्बत पर चढ़ बैठा तो भारत की सीमा के पास निर्माण कार्य शुरू कर दिया। यह बात जब नेहरू जी को पता चली तो इस पर ठीक से चीन से अथवा सेना से चर्चा करने के बजाय अपनी कोलंबो यात्रा से पहले पत्रकारों से लूज टॉक करते हुए कह गए कि हमारी सेना चीनियों को जल्द ही सीमा से पीटकर भगाएगी। चीन को वैसे भी एक मौका चाहिए था और ये बयान आग में घी का काम किया और चीन ने मौका देखकर भारत पर हमला कर दिया। भारत की ओर से कोई तैयारी ही नहीं थी। हमारे सैनिक वीरतापूर्वक लड़ते रहे और बलिदान होते रहे और उधर पंडित नेहरू हौसला बढ़ाने के बजाय रेडियो पर संदेश देने लगे कि असम की जनता के लिए उनका दिल दुख रहा है लेकिन अब जब चीन उन्हें जीतने जा रहा है तो हम केवल भारी मन से उनके लिए प्रार्थना कर सकते हैं।

पंडित नेहरू की नीति सैद्धांतिक रूप से सही थी लेकिन उसके पीछे जो तैयारी होनी चाहिए वह शून्य थी। इसलिए जब उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने नेतृत्व ग्रहण किया तो नॉन अलाइनमेंट की नीति छोड़कर USSR ग्रुप को जॉइन कर लिया और जो नेहरू जी न्यूक्लियर प्रोलिफरेशन के विरोधी थे उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने पोखरण परीक्षण कराए। जब भारत रूस के निकट गया तो अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया। रूस की सहायता, नेतृत्व क्षमता और सेना की तैयारी के बदौलत भारत ने पाकिस्तान को दो हिस्से में तोड़ दिया।

अमेरिका के लिए यह घटना भारी शर्म का सबब बनी। उसके बाद भारत और अमेरिका की दूरी और बढ़ गई। भारत को चीन और पाकिस्तान दोनों पड़ोसियों से खतरा था सो पहले USSR और बाद में रूस से उन्नत हथियार लेने पड़े और जिस देश से आप हथियार लेने लगते हैं आप उससे किसी भी स्थिति में संबंध खराब नहीं कर सकते। इसलिए आज भी भारत रूस से अपने संबंध अचानक अमेरिका के दबाव में समाप्त नहीं कर सकता। जब USSR सन 90 के बाद टूटा तो दुनिया में फिर से अमेरिका का प्रभुत्व स्थापित हो गया लेकिन भारत दूर खड़ा रहा। लेकिन धीरे-धीरे भारत को समझ आया कि अमेरिका को साथ लेकर चलना चाहिए।

पोखरण में परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगे और अटल जी की सरकार में महंगाई आसमान में चढ़ने लगी। तब तक क्लिंटन का कार्यकाल बीता और जॉर्ज बुश अमेरिका में राष्ट्रपति हुए, बुश को लगा कि चीन को काउंटर करने के लिए अमेरिका को भारत के साथ की आवश्यकता है इसलिए भारत और अमेरिका के बीच परमाणु समझौता हुआ और लेफ्ट के विरोध के बावजूद मुलायम सिंह यादव के समर्थन से मनमोहन सिंह ने यह बिल पास कर लिया।

दरअसल जॉर्ज बुश ने मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) से वादा किया था कि वह भारत में यह बिल पास कराने में उनकी मदद करेंगे। जब मामला खराब होने लगा तो बुश ने समाजवादी पार्टी के नेता स्वर्गीय अमर सिंह (Amar Singh) को भारत भेजा और मुलायम सिंह पर दबाव बनाया गया। मुलायम सिंह दुविधा में फँस गए क्योंकि उनको समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें लेफ्ट के साथ जाना चाहिए या इस बिल के साथ। परेशान मुलायम सिंह यादव को लेकर अमर सिंह पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब के पास पहुँचे और बिल पर उनकी राय माँगी।

कलाम साहब ने कहा कि यह बिल राष्ट्रहित में है। उसी आधार पर मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने बिल का समर्थन कर दिया और सरकार भी बच गई और डील भी। इसी चर्चा के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी जी ने कहा था कि हम सरकार को डिफीट तो करना चाहते हैं लेकिन डिस्टेबल नहीं और इस बात का समर्थन किया कि आज के समय में अमेरिका से दूरी बनाकर नहीं चलना चाहिए। इस तरह जॉर्ज बुश के व्यक्तिगत प्रयासों से भारत-अमेरिका के संबंध प्रगाढ़ हुए लेकिन रक्षा के लिए हम रूस पर निर्भर बने रहे।

आज भारत नॉन अलाइनमेंट की बात करता है, संप्रभु विदेश नीति की बात करता है, रूस और अमेरिका दोनों को साथ लेकर चलने की बात करता है, ग्लोबल साउथ की बात करता है तो उसके तमाम ऐतिहासिक कारण भी हैं और कई नीतियों में एक सांस्कृतिक राष्ट्र होने से निरंतरता भी है। अतः नेहरू जी के बिना भारत की विदेश और रक्षा नीति की बात करना असंभव है। जिन लोगों को लगता है कि भारत ही हमेशा दोराहे पर खड़ा मिलता है उन्हें भी इतिहास का थोड़ा-बहुत ज्ञान होना चाहिए।

Dr Bhupendra Singh

Writer (The Common Sense), Clinical Hematologist, General Secretary Shri Guru Gorakhnath Sewa Nyas, Nation intellectual cell coordinator @NMOBharat

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