डॉ. पांडुरंग वामन काणे : भारतीय संस्कृति पर शोध कर पश्चिमी देशों को दिखाया आईना
वर्ष 1963 में भारत रत्न से सुशोभित डॉ. पांडुरंग वामन काणे का जन्म 7 मई, 1880 को रत्नागिरी के दापोली ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शंकर राव था। वे संस्कृत के विद्वान और वैद्य थे। इस परिवेश में पले-बढ़े काणे जी की संस्कृत सबसे प्रिय भाषा बन गई। वे बचपन से ही कुशाग्र थे। पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने कई तरह की छात्रवृत्तियॉं अर्जित कर ली थीं।
उन्होंने एलएलबी के बाद संस्कृत और अंग्रेजी में एमए भी किया और जाला वेदांत पुरस्कार प्राप्त किया। पेरिस में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व करते हुये यह साबित कर दिया था कि हिन्दू धर्म अनेकों युगों से प्रगति व विकास का सूचक रहा है।
एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिये नौकरी के लिये प्रयास करना पड़ा। मगर उनके साथ एक समस्या थी। चितपावनी ब्राह्मणों से अंग्रेजी सरकार के अफसर चिढ़ते थे क्योंकि रानाडे और तिलक आदि ने सरकार की नाक में दम कर रखा था। ऐसे में एक चितपावनी ब्राह्मण को नौकरी पर रखने के लिये कोई तैयार नहीं था। घर की जिम्मेदारियों को सम्भालते हुये उन्होंने लेखन एवं शोध कार्य भी आरम्भ कर दिया। वर्ष 1908 में उन्होंने एलएलएम की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली।
इस बीच उनका संस्कृत प्रेम कम नहीं हुआ। उन्होंने ‘अलंकार साहित्य का इतिहास’ नामक ग्रंथ लिखकर सबको चकित कर दिया। इसके बाद उन्होंने धर्मशास्त्र के इतिहास पर कार्य किया तो अद्वितीय शोध ग्रंथ कहलाया। इस लेखन में उन्होंने जर्म और फ्रांसीसी भाषा का भी अध्ययन किया।
अपने शोध से उन्होंने पश्चिमी देशों की ओर से जो भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को लेकर भ्रांतियॉं फैलाई जा रही थीं उसका मुंहतोड़ जवाब दिया। उनके शोध कार्य आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने 18 पुस्तकों की रचना की। कई मराठी ग्रंथ लिखे। वे राज्यसभा के सांसद भी रहे। उन्होंने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ नामक ग्रंथ भी लिखा था। काणे जी उर्फ अन्ना साहेब ने उसकी भाषा अंग्रेजी ही रखी ताकी इस पुस्तक को विदेशी भी पढ़ सकें।
वे एक अच्छे अधिवक्ता भी थे। उन्होंने एक विधवा महिला का मुकदमा लड़ा था जो काफी चर्चित हुआ था। हुआ यूँ कि पंढरपुर के बिठोवा मन्दिर के मठाधीश एक ऐसी विधवा को मन्दिर में प्रवेश नहीं करने दे रहे थे जिसने अपने बाल न मुंडवाये थे। उस समय इसे धर्म विरूद्ध करार दिया जाता था। काणे जी को जब यह पता चला तो उन्होंने मुकदमा दायर कर दिया। पक्ष और विपक्ष में दलीलें दी गईं। धर्मशास्त्र के विद्वानों ने साक्ष्य दिये। काणे जी ने भी पुराणों में से उदाहरण प्रस्तुत किये।
विधवाओं के मुंडन का किसी भी धर्मशास्त्र में वर्णन किया गया था। पुजारी के सारे तर्क धरे के धरे रह गये। मराठी साहित्यकार और समाज सुधारक हरिनारायण आप्टे भी काणे जी के पक्ष में अपना दर्ज करवा चुके थे। अंतत: विधवा को बिठोवा भगवान को स्पर्श करने और मन्दिर में प्रवेश करने की छूट मिल गई।
डॉ पांडुरंग वामन काणे जी को भारत सरकार ने 1958 में भारतीय प्रस्थ विद्या का राष्ट्रीय प्राध्यापक बनाया था। इसकी मदद से वे देश के किसी भी कोने में जाकर शोध कर सकते थे। भारतीय संस्कृति के इस महान शोधकर्ता की 18 अप्रैल, 1972 में मत्यु हो गई थी।