Lucknow: आज देश एक ऐसे गंभीर जनस्वास्थ्य (Public Health) संकट की ओर बढ़ रहा है, जिस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह संकट है, एलोपैथिक दवाओं, विशेषकर एंटीबायोटिक्स, का अविवेकपूर्ण प्रचार, अंधाधुंध प्रिस्क्रिप्शन और अनियंत्रित उपयोग। यह स्थिति न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही है, बल्कि देश को उस दौर की ओर धकेल रही है जहां सामान्य संक्रमण भी जानलेवा सिद्ध हो सकते हैं।
इस संकट का एक बड़ा कारण है फार्मा कंपनियों द्वारा एलोपैथिक दवाओं (allopathic medicines) का अवैज्ञानिक प्रचार। कई बार बिक्री बढ़ाने के मकसद से दवाओं को वैज्ञानिक तर्क, नैतिकता और रोगी सुरक्षा (patient safety) की अनदेखी करते हुए बढ़ावा दिया जाता है। चिंताजनक तथ्य यह है कि इन दवाओं का प्रचार अप्रत्यक्ष रूप से एलोपैथी के बाहर की पद्धतियों तक पहुंच रहा है, जहां एलोपैथिक फार्माकोलॉजी का मानकीकृत प्रशिक्षण नहीं होता। वहीं अन्य चिकित्सा पद्धतियों द्वारा एलोपैथिक दवाओं का उपयोग आज एक आम चलन बन चुका है, जो वैज्ञानिक रूप से असुरक्षित और कानूनी रूप से संदिग्ध है। एंटीबायोटिक्स, स्टेरॉयड, ब्लड प्रेशर और डायबिटीज की दवाएं अत्यंत संवेदनशील होती हैं, जिनके लिए जरूरी है-
– सटीक निदान
– प्रमाण आधारित संकेत
– सही मात्रा (Dose)
– निश्चित अवधि
– दुष्प्रभावों की निगरानी
इन मानकों के बिना दवा उपचार नहीं, बल्कि जहर बन जाती है।
एंटीबायोटिक रेजस्टिेंस (antibiotic resistance)- एक बड़ी आपदा
अविवेकपूर्ण दवा उपयोग का सबसे खतरनाक परिणाम है एंटीबायोटिक प्रतिरोध (antibiotic resistance)। आज एंटीबायोटिक्स बिना बैक्टीरियल संक्रमण की पुष्टि, वायरल बीमारियों में, गलत मात्रा में, अनुचित अवधि तक व कल्चर एवं सेंसिटिविटी जांच के बिना दी जा रही हैं। परिणामस्वरूप, प्रतिरोध तेजी से विकसित हो रहा है। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो वह समय दूर नहीं जब सबसे शक्तिशाली एंटीबायोटिक्स भी निष्प्रभावी हो जायेंगी। यह कोई भविष्य की आशंका नहीं, बल्कि वर्तमान की वास्तविकता है।
इसका दुष्परिणाम आम जनता को दो स्तरों पर भुगतना पड़ रहा है-
– स्वास्थ्य की दृष्टि से- दीर्घकालिक रोग, दवा प्रतिरोध, अंगों को क्षति
– आर्थिक रूप से- अनावश्यक दवाओं और जांचों पर बढ़ता खर्च
अनुमान है कि देश में लगभग 80 प्रतिशत दवाएं अनावश्यक रूप से उपयोग की जा रही हैं। अंधाधुंध दवा लिखना उपचार नहीं, बल्कि चिकित्सकीय लापरवाही है। हर गोली में लाभ के साथ-साथ जोखिम भी होता है। इसलिए एक भी दवा केवल पूर्ण नैदानिक परीक्षण और आवश्यक जाँच के बाद ही दी जानी चाहिए।
यह स्थिति तत्काल सरकारी हस्तक्षेप की मांग करती है। सरकार को चाहिए कि वह-
– फार्मा कंपनियों के प्रचार को सख्ती से नियंत्रित करे और उसे केवल एलोपैथिक डॉक्टरों तक सीमित रखे
– गैर-एलोपैथिक पद्धतियों द्वारा एलोपैथिक दवाओं के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए
– एंटीबायोटिक स्टूवर्डशिप कार्यक्रम और प्रिस्क्रिप्शन ऑडिट लागू करे
– अविवेकपूर्ण दवा-लेखन के विरुद्ध कठोर कानून लागू करे
– जन-जागरूकता बढ़ाए कि अधिक दवाएं बेहतर इलाज नहीं होतीं
सरकार को समय रहते संज्ञान लेना होगा, अन्यथा स्थिति अपूरणीय हो सकती है। यदि अभी सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए, तो भारत एक ऐसे स्वास्थ्य संकट की ओर बढ़ेगा जहाँ एंटीबायोटिक्स बेअसर हो जायेंगी, इलाज अत्यधिक महंगा होगा और साधारण बीमारियां भी असाध्य बन जायेंगी।
लेखक
प्रो. डॉ. अनिल नौसरान
संस्थापक – यूनाइटेड फ्रंट ऑफ डॉक्टर्स