महात्मा ज्योतिबा फुले और सत्य शोधक समाज : सामाजिक क्रांति की शुरुआत

महात्मा ज्योतिराव फुले (Jyotirao Phule) ने 24 सितंबर 1873 को ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की, जो भारतीय समाज को जातिगत भेदभाव, अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों से मुक्त करने के उद्देश्य से शुरू किया गया एक ऐतिहासिक आंदोलन था।
फुले (jyotiba phule) ने महसूस किया कि जाति व्यवस्था, पुरोहितवाद, स्त्री-पुरुष असमानता और सामाजिक शोषण को समाप्त किए बिना भारत का विकास संभव नहीं है। उन्होंने धर्म के नाम पर चल रही गैर-बराबरी को चुनौती दी और ऐसे समाज की कल्पना की जहां हर व्यक्ति को समान अधिकार मिलें।
सत्य शोधक समाज की भूमिका
सत्य शोधक समाज न सिर्फ सामाजिक सुधार का मंच बना, बल्कि इसने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को भी चुनौती दी। फुले का मानना था कि जब तक धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या केवल एक वर्ग तक सीमित रहेगी, तब तक अन्य वर्गों का शोषण होता रहेगा। उन्होंने शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षा और आत्मसम्मान का हथियार दिया।
उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया, और समाज के उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
धार्मिक पाखंड का विरोध
फुले ने धार्मिक मिथकों को खंगालते हुए ‘गुलामगिरी’ जैसी किताबें लिखीं, जिनमें उन्होंने समाज में व्याप्त झूठे धार्मिक आग्रहों को बेनकाब किया। वे मानते थे कि ईश्वर तक पहुंचने के लिए किसी खास भाषा या जाति की जरूरत नहीं है – बल्कि सच्चे मन से की गई प्रार्थना ही सबसे बड़ी पूजा है।
शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर ज़ोर
फुले ने अस्पृश्यता और जातीय शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए कई स्कूलों की स्थापना की, जिनमें पहला स्कूल लड़कियों के लिए खोला गया। उनका विश्वास था कि शिक्षा से ही समाज में बदलाव संभव है।
सत्य शोधक समाज ने विवाह, नामकरण आदि संस्कारों को बिना ब्राह्मण पुरोहितों के कराना शुरू किया, जिससे निचली जातियों को आत्मनिर्भरता का नया रास्ता मिला।
सामाजिक समरसता का संदेश
सत्य शोधक समाज का फैलाव बहुत तेजी से हुआ। महाराष्ट्र के शहरी और ग्रामीण इलाकों में इसकी शाखाएं खुलीं और हजारों लोग इससे जुड़ने लगे। यह आंदोलन जाति और धर्म की दीवारों को तोड़ने का प्रतीक बना।
फुले का काम आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस दौर में था। उन्होंने जो बीज बोए थे, उनसे सामाजिक न्याय का एक विशाल वटवृक्ष पनपा, जिसकी छांव आज भी समानता के सपनों को सींच रही है।
महामना फुले का जीवन
ज्योतिबा फुले का जन्म एक साधारण माली परिवार में पेशवाई का गढ़ कहे जाने वाले पुणे में हुआ था. पेशवाई शासक जातीय दंभ तथा अस्पृश्यों पर अत्याचार के लिए जाने जाते थे.
शूद्रों और अतिशूद्रों को जातीय उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने के लिए फुले ने उन्हें संगठित होने और आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने की सलाह दी. अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले तथा अन्य सहयोगियों की मदद से उन्होंने कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की. लड़कियों का पहला स्कूल खोलने का श्रेय उन्हें ही है.
लोगों को अशिक्षा, पुरोहितशाही, जातीय भेदभाव, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध जागरूक करने हेतु जो पुस्तकें उन्होंने रचीं, उसकी लिस्ट इस प्रकार है. 1- तृतीय रत्न (नाटक, 1855), 2- छत्रपति राजा शिवाजी का पंवड़ा (1869), 3- ब्राह्मणों की चालाकी( 1869), 4- ग़ुलामगिरी(1873), 5- किसान का कोड़ा (1883), 6- सतसार अंक-1 और 2 (1885), 7- इशारा (1885), 8-अछूतों की कैफियत (1885), 9- सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक (1889), 10- सत्यशोधक समाज के लिए उपयुक्त मंगलगाथाएं तथा पूजा विधि (1887), 11-अंखड़ादि काव्य रचनाएं (रचनाकाल ज्ञात नहीं).