बचपन पर बोझ: क्या हम अपने बच्चों से उनका हक नहीं छीन रहे?
बचपन को रोकना नहीं, संजोना चाहिए। शिक्षा का मतलब केवल पढ़ाई नहीं, एक सुंदर जीवन की नींव तैयार करना है।

कल सोशल मीडिया पर एक विज्ञापन दिखाई दिया, जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। एक कोचिंग संस्थान अपने प्रचार में स्कूल के बच्चों को सिविल सेवा (IAS/IPS) की तैयारी कराने का दावा कर रहा था। हैरानी तो तब हुई जब देखा कि वह पाँचवीं कक्षा से बच्चों के दाखिले ले रहे हैं।
उस पर एक यूजर ने बेहद सटीक बात लिखी — “मां के पेट से ही कोचिंग शुरू करवा दी जाए, इतना समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं।”
यह बात मेरे दिल को छू गई क्योंकि मैं खुद एक पिता हूँ। मेरा नौ साल का बेटा, जिसे मैं अपनी आँखों का तारा मानता हूँ, सुबह 6 बजे उठता है। सात बजे स्कूल वैन उसे स्कूल ले जाती है। दोपहर 2 बजे घर लौटता है। फिर शाम 5 बजे से म्यूजिक क्लास, उसके बाद 6 बजे से ट्यूशन। रात नौ बजे घर लौटता है, फिर अगली सुबह की तैयारी शुरू।
इस सिलसिले में उसका मासूम बचपन कहीं खो जाता है। खेलने का समय नहीं, मन को समझने का समय नहीं। जब मैं उसकी आँखों में थकान और अनदेखा बोझ देखता हूँ, तो मेरा दिल टूट जाता है। यह सिलसिला सिर्फ हमारे बच्चे की नहीं, हर उस छोटे से बच्चे की कहानी बनता जा रहा है, जो अपने सपनों से दूर होता जा रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में कोचिंग इंडस्ट्री ने हमारे एजुकेशन सिस्टम को पूरी तरह से जकड़ लिया है। पहले 12वीं के बाद काम करने वाली यह इंडस्ट्री आज लगातार अपने पैर पसार रही है। बिजनेस बढ़ाने के चक्कर में मासूम बच्चों से उनका बचपन छीन रही है। अभिभावक भी विज्ञापन और प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ का हिस्सा बनते जा रहे हैं। लेकिन, इन सबमें हम अपने बच्चों से उनका बचपन छीनने में लगे हैं।
हम मानते हैं कि बच्चा भगवान का रूप है। पर क्या हम उन्हें उसी तरह संजो रहे हैं? या उन्हें सिर्फ मशीन की तरह तैयार कर रहे हैं? आज का यह व्यापार — “कोचिंग से छोटे बच्चों को तैयार करो” — एक ऐसा नया चलन बन गया है, जो उनकी मासूमियत और खुशी को कुचल रहा है।
मुझे लगता है, बच्चों का असली हक है —
• खेल में मस्त होना
• अपनी रुचियों को खोजना
• खुद से सवाल पूछना
• मौज-मस्ती करना
• बिना किसी दबाव के खुद को समझना और पहचानना
हमारे समाज को, नीति निर्माताओं को, और सबसे जरूरी – अभिभावकों को मिलकर यह सोचने की आवश्यकता है। हमें बच्चों पर अपने सपनों का बोझ थोपना बंद करना होगा। उन्हें स्वतंत्रता देने की ज़रूरत है। उनकी छोटी-छोटी खुशियों को पहचानने की ज़रूरत है।
आज मेरी आवाज उन हजारों अभिभावकों और बच्चों के लिए है, जो बिना सवाल उठाए इस प्रणाली में फंसे जा रहे हैं। मैं एक पिता के रूप में यही कहना चाहता हूँ —
“बचपन को रोकना नहीं, संजोना चाहिए। शिक्षा का मतलब केवल पढ़ाई नहीं, एक सुंदर जीवन की नींव तैयार करना है।”
आइए, हम सब मिलकर अपने बच्चों को उनके बचपन का हक दें। ताकि वे खिलते-फूलते स्वाभाविक रूप से अपने सपनों की ओर बढ़ सकें।
एक चिंतित पिता